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गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011


आज जिसे हम हवनकुण्ड या यज्ञकुण्ड कहते हैं वह वास्तव में यज्ञवेदी हैं। “तंत्रार्णव” में बताया गया है कि यज्ञ की वेदी समस्त ब्रह्माण्ड का एक छोटा रूप ही है। इस सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने सृष्टियज्ञ करके ही किया था। वेदों में अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ जैसे अनेक यज्ञों के विषय में वर्णन है। इन सभी यज्ञों के लिए भिन्न-भिन्न आकृतियों वाली वेदियाँ हुआ करती थीं। तैत्तिरीय ब्राह्मण कहता है कि जो स्वर्ग प्राप्ति की कामना से यज्ञानुष्ठान करता है उसे श्येन (बाज) पक्षी की आकृति जैसी वेदी बनवानी चाहिए क्योंकि श्येन की उड़ान समस्त पक्षियों में श्रेष्ठ है; ऐसी वेदी बनवाने वाला स्वयं श्येन का रूप लेकर उड़ते हुए स्वर्गलोक पहुँच जाता ह

यज्ञ की वेदियों की आकृति कितनी जटिल होती थीं इसका अनुमान नीचे के चित्रों को को देखकर लगाया जा सकता हैः

वेदी 1" src="http://agoodplace4all.com/wp-content/uploads/2011/01/Kankacit-e1295948328516.jpg" alt="हिन्दी वेबसाइट" height="150" width="225"> वेदी 2" src="http://agoodplace4all.com/wp-content/uploads/2011/01/Syenacit-e1295948451817.jpg" alt="हिन्दी वेबसाइट" height="138" width="225">

(चित्र http://www.ece.lsu.edu/kak/axistemple.pdf के सौजन्य से साभार)

यज्ञ की वेदियों में त्रिभुज, चतुर्भुज जिसमें वर्ग तथा आयत दोनों ही होते थे, षट्भुज, अष्टभुज, वृत आदि रेखागणितीय आकार सम्मिलित रहते थे तथा उन रेखागणितीय आकृतियों के क्षेत्रफल भी पूर्वनिर्धारित तथा निश्चित अनुपात में हुआ करते थे। आकृतियों के आकार-प्रकार, क्षेत्रफल आदि की गणना के लिए सूत्र बनाए गए थे जिन्हें शुल्बसूत्रों के नाम से जाना जाता है। बोधायन एवं आपस्‍तम्‍ब के शुल्बसूत्र प्रमुख माने जाते हैं। आपको शायद ज्ञात होगा, और यदि आप नहीं जानते हैं तो जानकर आपको आश्चर्य होगा, कि त्रिभुज की भुजाओं के वर्ग से सम्बन्धित जिस प्रमेय का प्रतिपादन करने के लिए ग्रीक लोग पैथागोरस को श्रेय देते हैं, उसके विषय में हमारे आचार्यों को पैथागोरस के काल से हजारों वर्ष पहले ही न केवल ज्ञान था बल्कि वे उस प्रमेय का यज्ञवेदी बनाने के लिए व्यवहारिक रूप से प्रयोग भी किया करते थे। बोधायन अपने शुल्बसूत्र में कहते हैं

समचतुरसस्याक्ष्णया रज्जुः पार्श्वमानी तिर्यङ्मानी च यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति। (बोधायन शुल्ब सूत्र १-१२)

इसका अर्थ है, किसी आयात का कर्ण क्षेत्रफल में उतना ही होता है, जितना कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई के वर्गों का योग होता है, दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी वर्ग के कर्ण का क्षेत्रफल स्वयं उस वर्ग के क्षेत्रफल से दोगुना होता है। हमारे पूर्वजों के इस ज्ञान को ग्रीक दार्शनिक तथा गणितज्ञ पैथागोरस अपने शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि किसी समकोण त्रिभुज के कर्ण का वर्ग उस त्रिभुज की अन्य दो भुजाओं के वर्गों के योग के बराबर होता है।

इन शुल्बसूत्रों में विशेषरूप से निर्धारित रेखागणितीय आकृतियों के निर्माण के विषय में बहुत से विवरण हैं तथा यह भी बताया गया है कि एक रेखागणितीय आकृति के क्षेत्रफल के बराबर या किसी निश्चित अनुपात के क्षेत्रफल वाले दूसरी रेखागणितीय आकृति कैसे बनाया जा सकता है जैसे कि एक आयत के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल वाले त्रिभुज, चतुर्भुज आदि बनाना।

यज्ञवेदियों के निर्माण के लिए विशेषज्ञ आचार्यों द्वारा इन्हीं सूत्रों का प्रयोग किया जाता था। दूरी की इकाई अंगुल होती थी जो कि जो कि आज के एक इंच के लगभग तीन चौथाई के बराबर होती थी। अंगुल को यव तथा तिल में पुनः विभाजित किया गया था, 8 यव या 34 तिल के बराबर एक अंगुल हुआ करता था। रेखागणितीय आकृतियों की भुजाओं, कर्णों आदि को नापने के लिए डोरी का प्रयोग किया जाता था जिसे कि रज्जु कहा जाता था।

बोधायन ने न केवल पैथागोरस प्रमेय (Pythagorean Ttheorem), जिसे कि अब (Boudhayan Ttheorem) के नाम से जाना जाता है, का ज्ञान दिया बल्कि अंक 2 के वर्गमूल ज्ञात करने सूत्र भी निम्न रूप में हमें दियाः

ऐसा प्रतीत होता है कि शुल्बसूत्रों का प्रयोग उस काल में भवन, अट्टालिकाएँ आदि के निर्माण के लिए भी अवश्य ही हुआ करता रहा होगा। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या, मिथिला, लंका के साथ ही साथ अनेक अन्य नगरों का वर्णन मिलता है जिनमें अनेक सुन्दर विशाल अट्टालिकाएँ, भवन, बावड़ियाँ, वाटिकाएँ तथा उपवन, बावड़ियाँ आदि बने होने का विवरण मिलता है जिनके निर्माण के लिए ज्यामितीय ज्ञान का होना अत्यावश्यक है। अतः यही कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में शुल्बसूत्रों का प्रयोग वास्तु से सम्बन्धित निर्माणकार्य में भी हुआ करता था। हमारा तो यह भी विश्वास है कि वर्तमान ताज महल के निर्माण में भी शुल्बसूत्रों का ही प्रयोग हुआ है।

भारत भूमि आरम्भ से ही ज्ञान का भण्डार रहा है और इसीलिए हमारा देश जगद्गुरु के रूप में जाना जाता था। पाश्चात्य विद्वानों ने हमारे वैदिक साहित्य का अपनी भाषाओं में अनुवाद अठारहवीं शताब्दी के अंत या उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में कर डाला था जिन पर शोध आज तक जारी है। प्राचीनकाल के आचार्यों के इन जटिल सूत्रों के विषय में जानकर विश्व के समस्त विद्वजन आज भी हतप्रभ हैं।



भारत ने अपने एक लाख वर्ष के इतिहास में कभी किसी अन्य देश पर आक्रमण नहीं किया।

पुरातात्विक अनुसन्धानों के अनुसार आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व, जब विश्व की अनेक संस्कृतियाँ कन्दराओं और घने जंगलों में निवास करती थीं, सम्पूर्ण भारत, विशेषतः सिन्धु घाटी, में एक अत्यन्त विकसित सभ्यता का आविर्भाव हो चुका था। वाल्मीकि रामायण में पाए जाने वाले अयोध्या, विशाखा, मिथिला, मलदा, करूप आदि विशाल अट्टालिकाओं, सुरम्य वाटिकाओं, साफ सुथरे चौड़े मार्गों वाले नगरों के वर्णन सिद्ध करते हैं कि भारत में इससे भी पूर्व नगरीय सभ्यता का विकास हो चुका था।

बौद्धिक खेल शतरंज का आविष्कार भारत में हुआ, शतरंज को प्राचीन भारत में चतुरंग के नाम से जाना जाता था।

बीजगणित (Algebra), त्रिकोणमिति (Trigonometry), चलन कलन (Calculus) आदि गणित के विभागों का उद्गम भारत में हुआ।

स्थान मूल्य प्रणाली (Place Value System) और दशमलव प्रणाली (Decimal System) का विकास भारत में ई.पू. 100 में हुआ।

विश्व प्रथम गणतन्त्र वैशाली भारत में था।

संसार का पहला विश्वविद्यालय भारत के तक्षशिला में ई.पू. 700 में स्थापित हुआ जहाँ पर विश्व भर के 10,500 से भी अधिक विद्यार्थी 60 से भी अधिक विषयों का अध्ययन करते थे। चौथी शताब्दी में स्थापित नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में भारत का महानतम उपलब्धि रही।

चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सा की प्राचीनतम पद्धति आयुर्वद भारत की ही देन है। शल्य चिकित्सा का आरम्भ भारत से ही हुआ।

पृथ्वी के द्वारा सूर्य का एक चक्कर लगाने में लगने वाले समय की गणना हजारों साल पहले भास्कराचार्य ने कर लिया था। उनके अनुसार यह अवधि 365.258756484 दिन हैं।

बोधायन ने हजारों साल पहले “पाई” का मान ज्ञात कर लिया था।

सन् 1896 तक पूरे विश्व में भारत ही हीरे का अकेला स्रोत था।

17वीं शताब्दी तक भारत विश्व का सर्वाधिक धनाड्य देश रहा।

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